यहाँ की जलवायु मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल रही अतः रास्ते की सारी थकान समाप्त हो गई थी। ईसरी के उदासीन आश्रम के ब्रह्मचारी लोग भी आहार देने आ जाते थे। एक बार एक ब्रह्मचारी आये और पैर धोकर चौके में आने लगे, मैंने संकेत से रोका, तब वे बाहर ठहर गये । ब्र. सुगनचंदजी ने पूछा- “आपने शुद्ध कपड़े कहाँ बदले हैं?” उन्होंने कहा- “मैंने ईसरी में प्रातः स्नान कर शुद्ध कपड़े पहने थे, पूजा किया था, उसके बाद सीधे वहाँ से आ रहा हूँ।“ ब्रह्मचारीजी ने पूछा – “क्या पैदल आये हैं?” वे बोले – “नहीं, नहीं, मैं बस से आया हूँ ।” तब ब्र सुगनचंद ने कहा कि- “अब आपके वस्त्र शुद्ध कैसे रहे? बस में तो सभी लोगों से छू गये हो!” वे बोले-“प्रातः शुद्ध कपड़े पहने थे, तो बार-बार बदलने की भला क्या जरूरत है?” खैर ! उन्हें रोक दिया गया अतः वे दुःखी भी हुए और झुंझलाए भी। बाद में आहार के पश्चात् भोजन आदि करके मेरे पास ‘शोध’ की चर्चा करने बैठ गये। तब मैंने उन्हें समझाया- “मेरी आचार्य परम्परा में वस्त्रों के शोध की जो व्यवस्था है सो सुनिये - धोती दुपट्टे आदि कपड़े धोकर, रस्सी या लोहे के तार की रस्सी पर सुखा देते हैं। उस समय उस रस्सी पर पहले के जो कपड़े सूख रहे हों, उन्हें हटा देना चाहिए अन्यथा वे अब आपसे छू गये और तब ये गीले भी वस्त्र सूखकर छुए ही माने जायेंगे पुनः उस रस्सी के सूखे वस्त्रों को एकांत में वस्त्र बदलकर, आकर उतारकर पहनना चाहिए या गीले कपड़े पहनकर इन्हें उतारना चाहिए या एकांत में नग्न होकर इन्हें उतारना चाहिए पुनः इन शुद्ध वस्त्रों को पहनकर ही चौका बनाना चाहिए और आहार देना चाहिए। यदि बाहर के छुए वस्त्र वालों से छू गये हैं तो चौके में नहीं आना चाहिए। चारित्र चक्रवर्ती श्री आचार्य शांतिसागरजी से लेकर आज तक उनकी परम्परा के साधुओं में वस्त्रों की शुद्धि की यही व्यवस्था चलती है। कोई-कोई धुलकर सूखे हुए वस्त्र लकड़ी से उठाकर रख देते हैं, उन्हें शुद्ध मानते हैं। कोई-कोई हाथ से ही वस्त्र उठाकर, टीन के डिब्बे में या प्लास्टिक की थैली में रखकर अन्यत्र ले जाते हैं, उन्हें पहनकर आहार दे देते हैं । कोई-कोई साधु तो ऐसे वस्त्र पहनने वालों से आहार ले लेते हैं किन्तु हम लोग वैसे नहीं लेते हैं।” यह सुनकर उन ब्रह्मचारी ने भी वहाँ मधुबन आकर अपने वस्त्र प्रातः सुखा दिये पुनः बदलकर आहार दिया, तब मैंने ले लिया। उन्हें खूब खुशी हुई।